~~~~मानव की पृबृति सुख की है ।धन सुख का ही रूप है ।धन स्वामी का सच्चा सेवक है ।इसलिये संसार मे प्राय: सभी धन चाहते है । और जीवन भर धन संगृह करते रहते है । एसे लोग जीवन जीते नही है अपितु जीने की तैयारी ही करते रहते है ।इनके विचार या सपने कुछ एसे होते है कि अभी क्या जीना ' जब तक सभी कलो का इंतजाम पूरा न हो जाए । फिर सुख चेन से जीवन जिएगें ।यह पूर्णिमा का सपना सजोए रहते है जो कभी किसी का पूरा नही हुआ ।सिकंदर का भी नही । तो फिर हम आप की औकात ही क्या है ।
धन बुरा नही है ' धन से अच्छा इस दुनिया मे कुछ भी नहीं है । जो कथा कथित लोग धन को छोडने या दान करने की सलाह देते है ।और भोले भाले लोगो को गुमराह करके सुदामा और हरीशचंदृ बनाने को कहते है । वे खुद धन के लोभी होते है ।
दौलत कमाना अच्छी बात है ।आखिर आदमी जीवन मे धन नही कमाएगा तो और करेगा भी क्या? जीवन का कुछ न कुछ मकसद तो होना ही चाहिए ।पर हर काम की एक सीमा होती है ।एवं अति हर चीज़ की बुरी होती है । व्यक्ति यह भूल जाता है । धन तो समुद्र के खारे पानी को पीने जैसा है ' जितना पियो उतनी ही जादा प्यास बढती है ।
धन की अधिकता होने पर धन का सदुपयोग होना बहुत जरूरी है वरना धन अपने आप ही समाप्त होने लगता है ।धन की तीन प्रमुख्य गति होतीं है ।
पहली दान _ धन की पहली सबसे उत्तम गति दान है । दान का अर्थ है दुसरो को उपयोग के लिए धन देना । दान करने से धन घटता नही है अपितु दुगना चौगना होकर वापस आता है बसर्ते सुपात्र को ही दान दिया गया हो ।
दुशरी भोग_ धन की दुशरी मध्यम गति है भोग । धन का उपयोग अपने सुख सुविधा या एस आराम के लिए करना और जिदगी को भरपूर सुख से जीना ।
तीसरी नाश_ धन की तीसरी गति होती है नाश जो सबसे नीच है । धन गतिशील होने के कारण उपरोक्त दोनो गति से रास्ता न मिलने पर स्यम ही नष्ट होने का रास्ता खोज लेता है ।
Seetamni@Gmail. com
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धन बुरा नही है ' धन से अच्छा इस दुनिया मे कुछ भी नहीं है । जो कथा कथित लोग धन को छोडने या दान करने की सलाह देते है ।और भोले भाले लोगो को गुमराह करके सुदामा और हरीशचंदृ बनाने को कहते है । वे खुद धन के लोभी होते है ।
दौलत कमाना अच्छी बात है ।आखिर आदमी जीवन मे धन नही कमाएगा तो और करेगा भी क्या? जीवन का कुछ न कुछ मकसद तो होना ही चाहिए ।पर हर काम की एक सीमा होती है ।एवं अति हर चीज़ की बुरी होती है । व्यक्ति यह भूल जाता है । धन तो समुद्र के खारे पानी को पीने जैसा है ' जितना पियो उतनी ही जादा प्यास बढती है ।
धन की अधिकता होने पर धन का सदुपयोग होना बहुत जरूरी है वरना धन अपने आप ही समाप्त होने लगता है ।धन की तीन प्रमुख्य गति होतीं है ।
पहली दान _ धन की पहली सबसे उत्तम गति दान है । दान का अर्थ है दुसरो को उपयोग के लिए धन देना । दान करने से धन घटता नही है अपितु दुगना चौगना होकर वापस आता है बसर्ते सुपात्र को ही दान दिया गया हो ।
दुशरी भोग_ धन की दुशरी मध्यम गति है भोग । धन का उपयोग अपने सुख सुविधा या एस आराम के लिए करना और जिदगी को भरपूर सुख से जीना ।
तीसरी नाश_ धन की तीसरी गति होती है नाश जो सबसे नीच है । धन गतिशील होने के कारण उपरोक्त दोनो गति से रास्ता न मिलने पर स्यम ही नष्ट होने का रास्ता खोज लेता है ।
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